👉🏻 शिक्षा 📚 पद्धति
(👉🏻 भाग - १/३ ==> गतांक से आगे .................................)
शिक्षा के विषय
प्राचीन भारतीय शिक्षा का इतिहास सहस्रों वर्षों की लम्बी अवधि में लिखा गया है। अत: यह अत्यन्त विशाल है। स्मृतियाँ संस्कृत साहित्य में परिवर्तनशील एक विशिष्ट काल की ओर संकेत करती हैं। उनके माध्यम से वैदिक काल से लेकर उनके अपने समय तक की समस्त साहित्यिक रचनाओं की श्रृंखला का पूर्वाभास कराया गया है। अतएव स्मृतिकालीन विद्यार्थियों के अध्ययनार्थ वेदों, ब्राह्मणों, उपनिषदों एवं सूत्रों के काल की समस्त मुख्य रचनाएँ थीं।
लगभग ईसा पूर्व पन्द्रह सौ शताब्दि तक अधिकांश वैदिक मन्त्रों के सम्पादन का कार्य पूर्ण हो चुका था। तत्पश्चात् वेदों के अर्थ-बोध के लिए जिन टीकात्मक एवं चर्चात्मक ग्रन्थों का विकास हुआ वे `ब्राह्मण' ग्रन्थों के नाम से प्रतिष्ठित हुए। इस काल के विद्वानों की प्रतिभा का उपयोग वेदों के स्वरूप की रक्षा एवं अर्थों के स्पष्टी-करण में किया गया, न कि, नवीन साहित्यिक-रचनाओं के निरुपण में। फलत: वैदिक यज्ञों से सम्बनध अनेक सिद्धान्तों, मतवादों और रीतियों का विवेचन `ब्राह्मणों' में होने लगा। विद्वानों ने विशेष रूप से अपनी साधना का केन्द्र यज्ञों के कर्मकाण्ड को बनाया। परिणाम स्वरूप कर्मकाण्डों में जटिलता एवं दुरूहता आ गयी। दूसरी ओर वेदों की दार्शनिक प्रवृत्ति का विकास हुआ और उसने `उपनिषदों' के रूप में पूर्णता प्राप्त की।
मनु ने चारों वेदों को श्रुति कहा है। ये चारों वेद ही संस्कृत साहित्य की प्रथम कड़ी हैं। वैदिक मन्त्रों का विकास चरणों के रूप में हुआ जिनकी वांछित शाखाओं का ज्ञान पुरोहित वर्ग अवश्य प्राप्त करता था। मन्त्र, ब्राह्मण, शाखा को पढ़े हुए 'ऋग्वेदी'; वेदों के पारगामी, समस्त शाखाओं के ज्ञाता 'ऋत्विज्' तथा वेदों को पढ़कर पारंगत हुए विद्वान् ब्राह्मण को विशिष्ट सम्मान प्राप्त था। जो ब्राह्मण तीन वेदों के ज्ञाता होते थे उन्हें 'त्रिवेदी' कहा जाता था। जो चारों के ज्ञाता थे उन्हे 'चतुर्वेदी' कहा जाता था।
मनुस्मृति में अध्ययन के लिए वेदों के कुछ प्रमुख विशेष रूप से पारित किये गये हैं। वस्तुत: इस काल तक धार्मिक क्रियाओं एंव प्रायश्चितों द्वारा शुद्धीकरण की प्रक्रियाओं में अत्यन्त विस्तार हो गया था। अतएव विशिष्ट अवसरों पर वेदों की कुछ ऋचाओं के उच्चारण का महत्व भी बढ़ गया। मनु स्मृति में ऐसी ऋचाओं का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि, इनका उच्चारण पूर्ण सन्तुलन एवं नियम के साथ होना चाहिए जिससे पापों से मुक्ति पायी जा सके। ब्राह्मण अथर्ववेद की अंगिरस श्रुति का प्रयोग शत्रु के नाश के लिए शस्त्र के रूप में करते थे। स्नातकों के प्रतिदिन के स्वाध्याय पाठ में ब्राह्मण ग्रन्थों के अध्ययन का प्रोत्साहन दिया गया है। मनु ने ऐतरेय ब्राह्मण (६.२) के `सुब्रह्मण्य' नामक मन्त्रों एवं ऐतरेय ब्राह्मण (८. १३-१६) तथा बह् वृच ब्राह्मण में वर्णित शुनःशेप गाथा का भी उल्लेख किया है।
ऋग्वैदिककालीन शिक्षा
ऋग्वैदिक काल में नैतिक आदर्शो पर अत्यन्त बल दिया गया है। चरित्र की शुद्धता के लिए ऋग्वेद काल में विशेष ध्यान दिया जाता था। असत्य एवं पापाचार को घृणित समझा जाता था। शिक्षा का उद्देश्य सभ्यता और संस्कृति का हस्तान्तरण भी था।
ब्राह्मण, अर्थात् गुरु विद्यार्थियों को मौखिक शिक्षा देते थे। वैदिक मन्त्रों का पाठ ही ज्ञानार्जन का माध्यम था। इससे विद्यार्थी आत्मशिक्षण भी प्राप्त करते थे। इस युग की शिक्षा का मूल उद्देश्य ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति करके मोक्ष प्राप्त करना था।
अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चतुवर्ग की प्राप्ति मुख्य ध्येय था। स्वाध्याय एवं मनन की इस शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी बहुधा उपनयन संस्कार के बाद गुरु के आश्रम में ही रहने जाते थे। उनका आपसी सम्बन्ध पिता-पुत्र-सा होता था। गुरु ज्ञान-विज्ञान के पारंगत मर्मज्ञ विद्वान् थे। वे समाज के पथप्रदर्शक थे।
उत्तर वैदिककालीन शिक्षा
इस काल में विद्यार्थियों के नियमित पठन-पाठन के लिए पाठशालाओं की व्यवस्था थी। उपनयन संस्कार के पश्चात् आचार्य विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश देते थे। इस प्रकार वह द्विज बन जाता था। आश्रम में प्रवेश के बाद विद्यार्थी को मेखला बांधनी होती थी। बड़े-बड़े बाल रखने पड़ते थे। वह यज्ञ के लिए समिधा बटोरता, भिक्षाटन भी किया करता था। ब्रह्मचारी विद्यार्थी को श्रम व तप करके विद्योपार्जन करना होता था।
गुरु विद्यार्थी को हर प्रकार से सत्पथ पर लाने का प्रयास करते थे; क्योंकि शिष्यों के पापों के लिए गुरु ही उत्तरदायी होते थे। शिष्य गुरु को भगवान् मानकर उनकी सेवा-सुश्रुषा करता हुआ आज्ञा पालन करता था । इस युग की शिक्षा का उद्देश्य श्रद्धा, मेधा, ज्ञान, धन, आयु तथा मोक्ष की प्राप्ति था । उपनिषदों में देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, नक्षत्रविद्या, तर्कविद्या तथा सच बोलने को विशेष महत्त्व दिया गया था।
बौद्धकालीन शिक्षा
मठों, विहारों में दी जाने वाली बौद्धकालीन शिक्षा का उद्देश्य चारित्रिक गुणों का विकास, ज्योतिष, तर्क, दर्शन था। बौद्धकाल में तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला, ओदलपुरी के विश्वविद्यालय विश्वप्रसिद्ध थे। यहां कई विषय पढाये जाते थे। धर्म, दर्शन, न्याय, तर्क, ज्योतिष आदि (विस्तारित सुचि निम्न लिखित है) की शिक्षा कुशल अध्यापक देता था। विद्यार्थी भौतिक उलझनों से दूर शान्त एवं प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा प्राप्त करते थे। इन ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालयों में दूर देशों-चीन, जापान आदि के भी विद्यार्थी अध्ययन हेतु आते थे।
०१. अग्नि विद्या
०२. वायु विद्या
०३. जल विद्या
०४. अंतरिक्ष विद्या
०५. पृथ्वी विद्या
०६. सूर्य विद्या
०७. चन्द्र व लोक विद्या
०८. मेघ विद्या
०९. पदार्थ विद्युत विद्या
१०. सौर ऊर्जा विद्या
११. दिन रात्रि विद्या
१२. सृष्टि विद्या
१३. खगोल विद्या
१४. भूगोल विद्या
१५. काल विद्या
१६. भूगर्भ विद्या
१७. रत्न व धातु विद्या
१८. आकर्षण विद्या
१९. प्रकाश विद्या
२०. तार संचार विद्या
२१. विमान विद्या
२२. जलयान विद्या
२३. अग्नेय अस्त्र विद्या
२४. जीव जंतु विज्ञान विद्या
२५. यज्ञ विद्या
वैज्ञानिक विद्याओं की अब बात करते है, व्यावसायिक और तकनीकी विद्या की।
०१. वाणिज्य
०२. भेषज
०३. शल्यकर्म व चिकित्सा
०४. कृषि
०५. पशुपालन
०६. पक्षिपलन
०७. पशु प्रशिक्षण
०८. यान यन्त्रकार
०९. रथकार
१०. रतन्कार
११. सुवर्णकार
१२. वस्त्रकार
१३. कुम्भकार
१४. लोहकार
१५. तक्षक
१६. रंगसाज
१७. रज्जुकर
१८. वास्तुकार
१९. पाकविद्या
२०. सारथ्य
२१. नदी जल प्रबन्धक
२२. सुचिकार
२३. गोशाला प्रबन्धक
२४. उद्यान पाल
२५. वन पाल
२६. नापित
२७. अर्थशास्त्र
२८. तर्कशास्त्र
२९. न्यायशास्त्र
३०. नौका शास्त्र
३१. रसायनशास्त्र
३२. ब्रह्मविद्या
३३. न्यायवैद्यकशास्त्र - अथर्ववेद
३४. क्रव्याद - अथर्ववेद
आदि विद्याओ क़े तंत्रशिक्षा क़े वर्णन हमें वेद और उपनिषद में मिलते है।
यह सब विद्या गुरुकुल में सिखाई जाती थी पर समय के साथ गुरुकुल लुप्त हुए तो यह विद्या भी लुप्त होती गयी।
शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य
किसी भी प्राचीन ग्रंथ में शिक्षा के उद्देश्यों का आधुनिक शिक्षा सिद्धान्त के अनुसार वर्णन नहीं प्राप्त होता। तथापि विभिन्न ग्रन्थों में इससे सम्बन्धित जो उल्लेख मिलते है, उनके आधार पर प्राचीन शिक्षा के उद्देश्यों तथा आदर्शों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
इन्हें इस प्रकार रखा जा सकता है
०१ - चरित्र का निर्माण:
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करना था। भारतीय शास्त्रों में उच्च चरित्रता को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। यह व्यक्ति का सबसे बड़ा आभूषण है। चरित्र एवं आचरण से हीन व्यक्ति की सर्वत्र निन्दा की गयी है। मनुस्मृति में वर्णित है कि ‘सभी वेदों का ज्ञाता विद्वान् भी सच्चरित्रता के अभाव में श्रेष्ठ नहीं है, किन्तु केवल गायित्री मन्त्र का ज्ञाता पण्डित भी यदि वह चरित्रवान् हैं तो श्रेष्ठ कहलाने योग्य हैं।’
सत्कर्मो से ही चरित्र का निर्माण सम्भव है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य जो ज्ञान तथा शक्ति प्राप्त करता है, उससे उसमें नैतिक गुणों का उदय होता है तथा सन्मार्ग का अनुसरण करने की प्रेरणा उसे प्राप्त होती है। भारतीय विचारकों ने चरित्र को विद्वता से अधिक महत्वपूर्ण माना है। महाभारत में एक स्थान पर तो यहाँ तक बताया गया है कि, केवल धार्मिक व्यक्ति ही विद्वान् होता है।
शिक्षा के माध्यम से ही मनुष्य अपनी तामसी तथा पाशविक प्रवृत्ति पर नियन्त्रण रखता है। उसमें अच्छे तथा बुरे के विभेद करने की बुद्धि जागृत होती है। वह बुरे कार्यों को त्याग कर अपने को सत्कर्मों में प्रवृत्त करता है। विद्यार्थी के लिये शिक्षा की व्यवस्था कुछ इस प्रकार की गयी थी, कि प्रारम्भ से ही उसे सच्चरित्र होने की प्रेरणा मिलती थी और वह तदनुसार अपने को विकसित करता था।
वह गुरुकुल में आचार्य के सान्निध्य में रहता था। आचार्य न केवल विद्यार्थी की बौद्धिक प्रगति का ध्यान रखता थे, अपितु उसके नैतिक आचरण की भी निगरानी करता थे। वह इस बात का ध्यान रखता थे कि, विद्यार्थी दिन-प्रतिदिन के जीवन में शिष्टाचार एवं सदाचार के नियमों का पालन करे। इनमें बड़ों के लिए सम्मान तथा छोटे के प्रति आचरण सम्मिलित थे।
इनके द्वारा विद्यार्थी को अपना चरित्र निर्माण करने में सहायता मिलती थी। ब्रह्मचर्य आश्रम में रहते हुए शौच, आचार, स्नान, सन्ध्योपासना आदि विद्यार्थी के चरित्र के मूल आधार थे, जो उसके चरित्र का उत्थान करते थे।
विद्यार्थी के समक्ष महापुरुषों जैसे हरिश्चन्द्र, राम, लक्ष्मण, हनुमान, भीष्म तथा सीता, सावित्री, अनसुय्या, द्रौपदी जैसी महान् नारियों के उच्च चरित्र का आदर्श प्रस्तुत किया जाता था, जिससे उसके चरित्र निर्माण में प्रेरणा मिलती थी।
प्राचीन शिक्षा पद्धति को विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण के लक्ष्य को पूरा करने में सफलता मिली। इसके द्वारा शिक्षित विद्यार्थी कालान्तर में चरित्रवान एवं आदर्श नागरिक बनते थे। भारत की यात्रा पर आने वाले विदेशी यात्रियों-मेगस्थनीज, हुएनसांग आदि सभी ने यहाँ के लोगों के नैतिक चरित्र के समुन्नत होने का प्रमाण प्रस्तुत किया है।
०२ - व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास
प्राचीन शिक्षा का एक उद्देश्य विद्यार्थी को व्यक्तित्व के विकास का पूरा अवसर प्रदान करना था। भारतीय व्यवस्थाकारों ने व्यक्तित्व को दबाने का कभी भी प्रयास नहीं किया। कुछ विद्वान् ऐसा सोचते हैं कि, यहाँ की शिक्षा पद्धति में कठोर अनुशासन के द्वारा विद्यार्थियों के व्यक्तित्व को दबा दिया गया जिससे उनका समुचित विकास नहीं हो सका।
किन्तु इस प्रकार की अवधारणा भारतीय दृष्टिकोण को भली प्रकार से न समझ सकने के कारण है। वस्तुतः यहाँ प्रत्येक युग में व्यावहारिक दृष्टि से वृत्ति के चुनाव की स्वतन्त्रता रही है।
प्राचीन शिक्षा पद्धति में विद्यार्थी के बौद्धिक विकास के साथ-साथ शारीरिक विकास का भी पूरा ध्यान रखा गया था। ‘स्वास्थ्य मस्तिष्क का अधिष्ठान स्वस्थ शरीर होता है’ यह धारणा प्राचीन भारतीय चिन्तकों को मान्य थी। शिक्षा के द्वारा विद्यार्थी में आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास, आत्म-संयम, विवेक-शक्ति, न्याय-शक्ति आदि गुणों का उदय होता था जो उसके व्यक्तित्व को विकसित करने में सहायक थे।
विद्याध्ययन के पूर्व उपनयन संस्कार के अवसर पर ही विद्यार्थी में आत्म-विश्वास जागृत किया जाता था। उसे यह बोध कराया जाता था कि, उसके कर्तव्यों के निर्वाह तथा लक्ष्य की प्राप्ति में देवगण उसकी सहायता करेंगे। अग्नि से प्रार्थना की जाती थी कि, वह उसे बुद्धि एवं शक्ति प्रदान करे। सविता उसकी शारीरिक बाधाओं को दूर करते थे।
इन दैवी शक्तियों से सम्पन्न बह्मचारी भविष्य के प्रति आश्वस्त होकर निष्ठापूर्वक पूरी दृढ़ता के साथ अपने कर्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों का विवाह करता था। भविष्य-जीवन की कठिनाइयों का भय उसे कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं कर सकता था। विद्यार्थी में आत्मसम्मान की भावना भी बढ़ाई जाती थी। उसे यह याद दिलाया जाता था कि, वह अपने जाति एवं देश की संस्कृति का रक्षक है।
संस्कृति का विकास तभी सम्भव है, जबकि वह अपने कर्तव्यों का विधिवत् पालन करे। उसका महत्व इतना अधिक था कि, राजा भी उसका आदर करता तथा अपने से ऊँचा आसन प्रदान करता था। वह ब्रह्मचारी को यथेच्छित धन प्रदान करता था। रघुवंश में उल्लिखित है कि, राजा रघु ने कौत्स के शिष्य वरतन्तु को चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्रायें उसके मांगने पर प्रदान कर दि थी।
विद्यार्थी को भविष्य-जीवन की चिन्ता नहीं सताती थी। उसके निर्वाह का उत्तरदायित्व समाज अपने कन्धों पर वहन करता था। ब्रह्मचारी जहाँ कहीं भी जाता उसकी पूजा होती तथा लोग उसके निर्वाह के लिये द्रव्य-प्रदान करते थे। उसका लक्ष्य स्पष्ट एवं सुनिश्चित था। यदि वह व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण करता तो उसकी वृत्ति पूर्व निर्धारित थी।
यदि वह धार्मिक शिक्षा ग्रहण करता तो भी निर्धनता उसके मार्ग में बाधक नहीं थी। उसकी आवश्यकतायें सीमित होती थीं तथा समाज उनकी पूर्ति करता था। विद्यार्थी सदा जीवन एवं उच्च विचार का आदर्श सामने रखता था।
आत्मसंयम एवं आत्मानुशासन की प्रवृत्तियाँ भी व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक होती थीं। उसे अपने इन्द्रियों की उच्छृंखल प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण रखना पड़ता था। आहार, विहार, वस्त्र, आचरण आदि सभी को उसे नियमित करना होता था। शुद्धता एवं सादगी उसके जीवन के मुख्य ध्येय थे।
गीता में कहा है कि, ‘यथायोग्य आहार-विहार करने वाले, कर्मों में यथायोग्य प्रयास करने वाले, यथायोग्य शयन करने वाले तथा यथायोग्य जागने वाले व्यक्ति के लिये ही योग दुःख का विनाशक बनता है।’ आत्मसंयम से ही व्यक्ति में विवेक एवं न्याय शक्ति का उदय होता है। वह सत्-असत् का भेद करने में समर्थ हो जाता है। इन सभी तत्वों का विद्यार्थी के व्यक्तित्व के सम्यक् विकास में योगदान होता है।
भारतीय चिन्तकों ने विद्यार्थी की प्रवृत्तियों एवं भावनाओं को अनावश्यक दबाने का प्रयास नहीं किया। आत्म-नियन्त्रण एवं आत्मानुशासन से उनका तात्पर्य यथोचित एवं यथावश्यक आहार, विहार, वस्त्राभरण, निद्रा, शयन आदि से था। इससे विद्यार्थी को उच्छृंखल होने से बचाया जाता था। अध्यापक विद्यार्थी को प्रताड़ित करने के बजाय प्रेम एवं सद्भावना द्वारा सन्मार्ग में प्रवृत्त करता था।
०३ - नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का ज्ञान
प्राचीन शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का बोध कराकर उसे सुयोग्य नागरिक बनाना भी था। अध्ययन की समाप्ति पर समावर्तन संस्कार का आयोजन किया जाता था। जिसमें आचार्य विद्यार्थी के समक्ष उसके भावी कर्तव्यों को अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते थे।
तैत्तिरीय उपनिषद् में इसे इस प्रकार रखा गया है
सत्य बोलना, धर्म का आचरण करना। अपने परिश्रम (स्वाध्याय) में आलस्य मत करना। गुरु को दक्षिणा देने के बाद सन्तति उत्पादन की परम्परा को विच्छिन्न मत करना। सत्यमार्ग से विचलित मत होना। धर्म से विचलित मत होना। लाभकारी कार्यों में प्रमाद मत करना। महान् बनने का अवसर न खोना।
अध्ययन-अध्यापन के कर्तव्यों की उपेक्षा मत करना। देवताओं तथा पितरों के यज्ञ, श्रद्धादि की उपेक्षा मत करना। माता को देवी मानना। आचार्य को देवता मानना। पिता को देवता मानना। अपने अतिथि को देवता समझना। दोष रहित कार्यों को करना, अन्य नहीं। लोगों के अच्छे कार्यों का अनुकरण करना।
जो कुछ भी दान करना, श्रद्धा, विश्वास, आनन्द, विनम्रता, भय तथा दयालुता से करना। कर्तव्य अथवा आचरण में किसी प्रकार के संदेह होने पर उत्तम विवेक वाले ब्राह्मणों की भाँति आचरण करना। इस प्रकार आचार्य विद्यार्थी को उसके सभी सामाजिक कर्तव्यों का बोध करा देता था।
अध्ययनोपरान्त वह गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता तथा आचार्य द्वारा बताये गये मार्ग का अनुसरण करते हुए, देश तथा समाज के प्रति अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का निर्वाह करता था। विभिन्न व्यवसायों में अपनी अलग-अलग आचार सहितायें होती थीं।
इसमें सामाजिक कर्तव्यों पर विशेष बल दिया गया था। चिकित्सकों से अपेक्षा की जाती थी कि, वह अपने जीवन के मूल्य पर भी रोग एवं कष्ट का निदान करें। योद्धा वर्ग प्राणोत्सर्ग द्वारा देश एवं समाज की रक्षा करने की शिक्षा प्राप्त करता था।
विभिन्न शिल्पियों के लिये अलग-अलग आचार सहितायें थीं जिनके द्वारा वे अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हुए समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करते थे। उन्हें यह सलाह दी गयी कि वे केवल अपने स्वार्थ में ही लिप्त न रहें अपितु अपने धन का समुचित भाग परोपकार एवं जनकल्याण के कार्यों में भी व्यय करें।
०४ - सामाजिक सुख तथा कौशल की वृद्धि
भारतीय शिक्षा का उद्देश्य सामाजिक सुख एवं निपुणता को प्रोत्साहन प्रदान करना भी था। केवल संस्कृति अथवा मानसिकता और बौद्धिक शक्तियों को विकसित करने के लिये ही शिक्षा नहीं दी जाती थी, अपितु इसका मुख्य ध्येय विभिन्न उद्योगों, व्यवसायों आदि में लोगों को दक्ष बनाना था।
भारतीय समाज में श्रम विभाजन का सिद्धान्त स्वीकार किया गया था। पेशे प्रायः वंशानुगत होते थे। विभिन्न वर्णों के लोग अपनी-अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा प्राप्त करके अपने-अपने कर्मों में निपुणता प्राप्त करते थे। गीता में वर्णित है कि, ‘अपने- अपने कर्मों में रत मनुष्य ही सिद्धि को प्राप्त करता है।’
भारतीय शिक्षा पद्धति ने सदैव यह उद्देश्य अपने समक्ष रखा कि, नई पीढ़ी के युवकों को उनके आनुवंशिक व्यवसायों में कुशल बनाया जाये। सभी प्रकार के कार्यों के लिये शिक्षा देने की व्यवस्था प्राचीन भारत में थी। कार्य विभाजन के द्वारा विभिन्न शिल्पों और व्यवसायों में लोग निपुणता प्राप्त करने लगे जिससे सामाजिक प्रगति को बल मिला तथा समाज में सन्तुलन भी बना रहा।
०५ - संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार
शिक्षा संस्कृति के परिरक्षण तथा परिवर्धन का प्रमुख माध्यम है। इसी के द्वारा प्राचीन संस्कृति वर्तमान में जीवित रहती है, तथा पूर्वकालिक परम्पराओं में जीवनी-शक्ति आती है। अतः प्राचीन शिक्षा पद्धति ने इस उद्देश्य को सम्यक् रूप से पूरा किया। विभिन्न वर्णों के लोगों का कर्तव्य था कि, वे अपनी सन्तति को अपने वर्ण से सम्बन्धित सभी प्रकार के शिल्पों एवं प्रगति के विषय में प्रारम्भ में ही शिक्षित कर दें।
आर्य जाति की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य वैदिक साहित्य को सुरक्षित बनाये रखना था। एतदर्थ में यह व्यवस्था की गयी कि, प्रत्येक विद्यार्थी वेदों को कण्ठस्थ करे तथा उसे अपने मस्तिष्क में सुरक्षित रखे। बाह्मणों का एक वर्ग अपने पवित्र ग्रन्थों की स्मृति सुरक्षित रखने को सदा उद्यत रहता था।
कुछ लोग काव्यशास्त्र, व्याकरण, लौकिक साहित्य, तर्कविद्या, दर्शन में निपुण होकर प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को सुरक्षित रखते थे। भारत में वेद तथा अन्य धर्म ग्रंथ जिस प्रकार से आज तक जीवित है, उसकी समता किसी अन्य सभ्यता में देखने को नहीं मिलती है।
भारतीय समाज में वैदिक युग से ही तीन ऋणों का सिद्धान्त प्रचलित हुआ। इसने प्राचीन पीढ़ियों की सर्वोत्तम परम्पराओं को सुरक्षित बनाये रखने तथा उसके प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह माना गया कि, जन्म के साथ ही व्यक्ति पर तीन त्रण लद जाते है- देवऋण, ऋषिऋण तथा पितृऋण।
इनसे मुक्त होना प्रत्येक का परम कर्तव्य होता है। इसके लिये उसे कुछ कार्यों को सम्पन्न करना पड़ता है। देवऋण से मुक्ति यज्ञों का अनुष्ठान करने पर ऋषिऋण से मुक्ति ब्रह्मचर्य के पालन से तथा पितृऋण से मुक्ति सन्तानोत्पन्न करने पर मिलती है।
इन ऋणों के विधान द्वारा इस बात की पूरी व्यवस्था की गयी थी कि, भावी पीढ़ियों अपनी प्राचीन संस्कृति तथा परम्पराओं को सुरक्षित रखें तथा उनका प्रचार-प्रसार भी करती रहें। प्राचीन सांस्कृतिक परम्पराओं को क्षत रखने के कुछ अन्य उपाय भी थे।
इनमें स्वाध्याय तथा ऋषि-तर्पण का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। स्वाध्याय में प्रत्येक व्यक्ति से आशा की जाती थी कि, वह विद्यार्थी जीवन में अधीत पाठों के कम से कम एक भाग की प्रतिदिन पुनरावृत्ति करे।
द्वितीय में यह विधान किया गया कि, वह प्रातकालीन प्रार्थनाओं में पूर्वकाल के महर्षियों के प्रति कृतज्ञता स्थापित करे। कालान्तर में जब वैदिक संस्कृत का प्रचलन बन्द हो गया तब लोक भाषा में पुराण आदि साहित्यों को प्रस्तुत किया गया, जिनके माध्यम से वैदिक संस्कृति तथा परम्पराओं को सामान्य जन तक पहुंचाया गया। परिणामस्वरूप भारत की प्राचीन संस्कृति जीवन्त रही।
०६ - निष्ठा तथा धार्मिकता का संचार करना
भारत की प्राचीन संस्कृति धर्मप्राण रही है जहाँ धर्म ने संस्कृति के सभी पहलुओं को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। अतः शिक्षा पद्धति भी धर्म से प्रभावित थी, तथा उसका एक प्रमुख उद्देश्य विद्यार्थियों में निष्ठा एवं धार्मिकता की भावना जागृत करना था।
विद्यारम्भ में जो संस्कार होते थे, गुरुकुल में विद्यार्थी के लिये जो अनुष्टान एवं व्रत निर्धारित थे, तथा उसकी जो प्रतिदिन की प्रार्थना होती थी, इन सबके द्वारा उसके मस्तिष्क में पवित्रता एवं धार्मिकता का उदय होता था।
यह आध्यात्मिक भावना उसे भौतिक जीवन के आकर्षणों से विरत करती थी। वह सत्यनिष्ठा के साथ अपना आचार-विचार संयमित रखते हुये अध्ययन करता था और सुचरित्र का निर्माण करता था, किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि, प्राचीन शिक्षा विद्यार्थियों को संसार त्यागकर सन्यास ग्रहण करने की प्रेरणा देती थी। इसका उद्देश्य विद्यार्थी को सामाजिक जीवन के लिए उपयुक्त बनाना था।
वैदिक युग में भी बहुत कम लोग आजीवन बह्मचर्य रहते थे। अधिकांश लोग विद्याध्ययन के पश्चात् गृहस्याश्रम का अनुसरण करते थे। प्राचीन धर्मग्रन्थों में इसे ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है, क्योंकि यह अन्य सभी का पोषक था। सन्यास एवं कायाक्लेश को अधिक मान्यता नहीं मिली।
इस प्रकार प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के उद्देश्य अत्यन्त उच्च कोटि के थे। शिक्षा-सम्बन्धी प्राचीन भारतीयों का दृष्टिकोण मात्र आदर्शवादी ही नहीं, अपितु अधिकांश अंशों में व्यवहारिक भी था। यह व्यक्ति को सांसारिक जीवन की कठिनाइयों एवं समस्याओं के समाधान के लिये सर्वथा उपयुक्त बनाती थी। शिक्षा समाज-सुधार का सर्वोत्तम माध्यम थी।
अतः भारतीय विचारकों ने सबके लिये इसकी व्यवस्था की थी। प्रत्येक आर्य के लिये उपनयन अनिवार्य था, जिससे विद्यारम्भ होता था। वृहदारण्यकोपनिषद् में विहित है कि, मनुष्य पितृऋण से मुक्त केवल सन्तानोत्पन्न करने से ही नहीं होता अपितु इसके लिये उसे अपने पुत्रों की उचित शिक्षा की व्यवस्था भी करनी होती थी।
यह भी कहा गया कि, जो माता-पिता अपने बालक को ठीक समय पर शिक्षा नहीं प्रदान करते, वे उसके सबसे बड़े वैरी हैं। इन उक्तियों के द्वारा प्राचीन विचारकों ने शिक्षा को व्यापक बनाने का प्रयास किया।
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