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EDUCATION SYSTEM | शिक्षा 📚 पद्धति 👉🏻 भाग - ३/३ |


👉🏻 शिक्षा 📚 पद्धति

👉🏻 भाग - ३/३

(👉🏻 भाग - २/३ ==> गतांक से आगे .................................)

भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था का अन्त

प्राचीन भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया था। वह समकालीन विश्व की शिक्षा व्यवस्था से समुन्नत व उत्कृष्ट थी। लेकिन कालान्तर में भारतीय शिक्षा का व्यवस्था का ह्रास हुआ। विदेशियों ने यहाँ की शिक्षा व्यवस्था को उस अनुपात में विकसित नहीं किया, जिस अनुपात में होना चाहिये था। अपने संक्रमण काल में भारतीय शिक्षा को कई चुनौतियों व समस्याओं का सामना करना पड़ा। आज भी ये चुनौतियाँ व समस्याएँ हमारे सामने हैं, जिनसे दो-दो हाथ करना है।

१८५० तक भारत में गुरुकुल की प्रथा चलती आ रही थी परन्तु मैकोले द्वारा अंग्रेजी शिक्षा के संक्रमण के कारण भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था का अन्त हुआ और भारत में कई गुरुकुल तोड़े गए और उनके स्थान पर कान्वेंट और पब्लिक स्कूल खोले गए।

आज अंग्रेज मैकोले पद्धति से हमारे देश के युवाओं का भविष्य नष्ट हो रहा तब ऐसे समय में गुरुकुल के पुनः उद्धार की आवश्यकता है।

मध्यकाल

भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना होते ही इस्लामी शिक्षा का प्रसार होने लगा। फारसी जाननेवाले ही सरकारी कार्य के योग्य समझे जाने लगे। हिंदू अरबी और फारसी पढ़ने लगे। बादशाहों और अन्य शासकों की व्यक्तिगत रुचि के अनुसार इस्लामी आधार पर शिक्षा दी जाने लगी। इस्लाम के संरक्षण और प्रचार के लिए मस्जिदें बनती गई, साथ ही मकतबों, मदरसों और पुस्तकालयों की स्थापना होने लगी। मकतब प्रारंभिक शिक्षा के केंद्र होते थे और मदरसे उच्च शिक्षा के। मकतबों की शिक्षा धार्मिक होती थी। विद्यार्थी कुरान के कुछ अंशों का कंठस्थ करते थे। वे पढ़ना, लिखना, गणित, अर्जीनवीसी और चिट्ठीपत्री भी सीखते थे। इनमें हिंदू बालक भी पढ़ते थे।

मकतबों में शिक्षा प्राप्त कर विद्यार्थी मदरसों में प्रविष्ट होते थे। यहाँ प्रधानता धार्मिक शिक्षा दी जाती थी। साथ साथ इतिहास, साहित्य, व्याकरण, तर्कशास्त्र, गणित, कानून इत्यादि की पढ़ाई होती थी। सरकार शिक्षकों को नियुक्त करती थी। कहीं कहीं प्रभावशाली व्यक्तियों के द्वारा भी उनकी नियुक्ति होती थी। अध्यापन फारसी के माध्यम से होता था। अरबी मुसलमानों के लिए अनिवार्य पाठ्य विषय था। छात्रावास का प्रबंध किसी किसी मदरसे में होता था। दरिद्र विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति मिलती थी। अनाथालयों का संचालन होता था। शिक्षा नि:शुल्क थी। हस्तलिखित पुस्तकें पढ़ी और पढ़ाई जाती थीं।

राजकुमारों के लिए महलों के भीतर शिक्षा का प्रबंध था। राज्यव्यवस्था, सैनिक संगठन, युद्धसंचालन, साहित्य, इतिहास, व्याकरण, कानून आदि का ज्ञान गृहशिक्षक से प्राप्त होता था। राजकुमारियाँ भी शिक्षा पाती थीं। शिक्षकों का बड़ा सम्मान था। वे विद्वान्‌ और सच्चरित्र होते थे। छात्र और शिक्षकों को आपसी संबंध प्रेम और सम्मान का था। सादगी, सदाचार, विद्याप्रेम और धर्माचरण पर जोर दिया जाता था। कंठस्थ करने की परंपरा थी। प्रश्नोत्तर, व्याख्या और उदाहरणों द्वारा पाठ पढ़ाए जाते थे। कोई परीक्षा नहीं थी। अध्ययन अध्यापन में प्राप्त अवसरों में शिक्षक छात्रों की योग्यता और विद्वत्ता के विषय में तथ्य प्राप्त करते थे। दंड प्रयोग किया जाता था। जीविका उपार्जन के लिए भी शिक्षा दी जाती थी। दिल्ली, आगरा, बीदर, जौनपुर, मालवा मुस्लिम शिक्षा के केंद्र थे। मुसलमान शासकों के संरक्षण के अभाव में भी संस्कृत काव्य, नाटक, व्याकरण, दर्शन ग्रंथों की रचना और उनका पठन पाठन बराबर होता रहा।

आधुनिक काल

भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव यूरोपीय ईसाई धर्मप्रचारक तथा व्यापारियों के हाथों से डाली गई। उन्होंने कई विद्यालय स्थापित किए। प्रारंभ में मद्रास ही उनका कार्यक्षेत्र रहा। धीरे धीरे कार्यक्षेत्र का विस्तार बंगाल में भी होने लगा। इन विद्यालयों में ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ साथ इतिहास, भूगोल, व्याकरण, गणित, साहित्य आदि विषय भी पढ़ाए जाते थे। रविवार को विद्यालय बंद रहता था। अनेक शिक्षक छात्रों की पढ़ाई अनेक श्रेणियों में कराते थे। अध्यापन का समय नियत था। साल भर में छोटी बड़ी अनेक छुट्टियाँ हुआ करती थीं।

प्राय: १५० वर्षों के बीतते बीतते व्यापारी ईस्ट इंडिया कंपनी राज्य करने लगी। विस्तार में बाधा पड़ने के डर से कंपनी शिक्षा के विषय में उदासीन रही। फिर भी विशेष कारण और उद्देश्य से १७८१ में कलकत्ते में 'कलकत्ता मदरसा' कंपनी द्वारा और १७९२ में बनारस में 'संस्कृत कॉलेज' जोनाथन डंकन द्वारा स्थापित किए गए। धर्मप्रचार के विषय में भी कंपनी की पूर्वनीति बदलने लगी। कंपनी अब अपने राज्य के भारतीयों को शिक्षा देने की आवश्यकता को समझने लगी। १८१३ के आज्ञापत्र के अनुसार शिक्षा में धन व्यय करने का निश्चय किया गया। किस प्रकार की शिक्षा दी जाए, इसपर प्राच्य और पाश्चात्य शिक्षा के समर्थकों में मतभेद रहा। वाद विवाद चलता चला। अंत में मैकोले के तर्क वितर्क और राजा राममोहन राय के समर्थन से प्रभावित हो १८३५ ई. में लार्ड बेंटिक ने निश्चय किया कि, अंग्रेजी भाषा और साहित्य और यूरोपीय इतिहास, विज्ञान, इत्यादि की पढ़ाई हो और इसी में १८१३ के आज्ञापत्र में अनुमोदित धन का व्यय हो। प्राच्य शिक्षा चलती चले, परंतु अंग्रेजी और पश्चिमी विषयों के अध्ययन और अध्यापन पर जोर दिया जाए।

पाश्चात्य रीति से शिक्षित भारतीयों की आर्थिक स्थिति सुधरते देख जनता इधर झुकने लगी। अंग्रेजी विद्यालयों में अधिक संख्या में विद्यार्थी प्रविष्ट होने लगे, क्योंकि अंग्रेजी पढ़े भारतीयों को सरकारी पदों पर नियुक्त करने की नीति की सरकारी घोषणा हो गई थी। सरकारी प्रोत्साहन के साथ साथ अंग्रेजी शिक्षा को पर्याप्त मात्रा में व्यक्तिगत सहयोग भी मिलता गया। अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के साथ साथ अधिक कर्मचारियों की और चिकित्सकों, इंजिनियरों और कानून जाननेवालों की आवश्यकता पड़ने लगी। उपयोगी शिक्षा की ओर सरकार की दृष्टि गई। मेडिकल, इजिनियरिंग और लॉ कालेजों की स्थापना होने लगी। स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा फुले ने १८४८ में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था। लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री को इस योग्य बना दिया। उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए, तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया, इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए। स्त्री शिक्षा पर ध्यान दिया जाने लगा।

१८५३ में शिक्षा की प्रगति की जाँच के लिए एक समिति बनी। १८५४ में बुड के शिक्षासंदेश पत्र में समिति के निर्णय कंपनी के पास भेज दिए गए। संस्कृत, अरबी और फारसी का ज्ञान आवश्यक समझा गया। औद्योगिक विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया। प्रातों में शिक्षा विभाग अध्यापक प्रशिक्षण नारीशिक्षा इत्यादि की सिफारिश की गई। १८५७ में स्वतंत्रता युद्ध छिड़ गया जिससे शिक्षा की प्रगति में बाधा पड़ी। प्राथमिक शिक्षा उपेक्षित ही रही। उच्च शिक्षा की उन्नति होती गई। १८५७ में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित हुए।

मुख्यत: प्राथमिक शिक्षा की दशा की जाँच करते हुए शिक्षा के प्रश्नों पर विचार करने के लिए १८८२ में सर विलियम विल्सन हंटर की अध्यक्षता में भारतीय शिक्षा आयोग की नियुक्ति हुई। आयोग ने प्राथमिक शिक्षा के लिए उचित सुझाव दिए। सरकारी प्रयत्न को माध्यमिक शिक्षा से हटाकर प्राथमिक शिक्षा के संगठन में लगाने की सिफारिश की। सरकारी माध्यमिक स्कूल प्रत्येक जिले में एक से अधिक न हो; शिक्षा का माध्यम माध्यमिक स्तर में अंग्रेजी रहे। माध्यमिक स्कूलों के सुधार और व्यावसायिक शिक्षा के प्रसार के लिए आयोग ने सिफारिशें कीं। सहायता अनुदान प्रथा और सरकारी शिक्षाविभागों का सुधार, धार्मिक शिक्षा, स्त्री शिक्षा, मुसलमानों की शिक्षा इत्यादि पर भी आयोग ने प्रकाश डाला।

आयोग की सिफारिशों से भारतीय शिक्षा में उन्नति हुई। विद्यालयों की संख्या बढ़ी। नगरों में नगरपालिका और गाँवों में जिला परिषद् का निर्माण हुआ और शिक्षा आयोग ने प्राथमिक शिक्षा को इनपर छोड़ दिया परंतु इससे विशेष लाभ न हो पाया। प्राथमिक शिक्षा की दशा सुधर न पाई। सरकारी शिक्षा विभाग माध्यमिक शिक्षा की सहायता करता रहा। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही रही। मातृभाषा की उपेक्षा होती गई। शिक्षा संस्थाओं और शिक्षितों की संख्या बढ़ी, परंतु शिक्षा का स्तर गिरता गया। देश की उन्नति चाहनेवाले भारतीयों में व्यापक और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा की आवश्यकता का बोध होने लगा। स्वतंत्रताप्रेमी भारतीयों और भारतप्रेमियों ने सुधार का काम उठा लिया। १८७० में बाल गंगाधर तिलक और उनके सहयोगियों द्वारा पूना में फर्ग्यूसन कालेज, १८८६ में आर्यसमाज द्वारा लाहौर में दयानंद ऐंग्लो वैदिक कालेज और १८९८ में काशी में श्रीमती एनी बेसेंट द्वारा सेंट्रल हिंदू कालेज स्थापित किए गए।

१८९४ में कोल्हापुर रियासत के राजा छत्रपति साहूजी महाराज ने दलित और पिछड़ी जाति के लोगों के लिए विद्यालय खोले और छात्रावास बनवाए। इससे उनमें शिक्षा का प्रचार हुआ और सामाजिक स्थिति बदलने लगी। १८९४ से १९२२ तक पिछड़ी जातियों समेत समाज के सभी वर्गों के लिए अलग-अलग सरकारी संस्थाएं खोलने की पहल की। यह अनूठी पहल थी उन जातियों को शिक्षित करने के लिए, जो सदियों से उपेक्षित थीं, इस पहल में दलित-पिछड़ी जातियों के बच्चों की शिक्षा के लिए ख़ास प्रयास किये गए थे। वंचित और गरीब घरों के बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई। १९२० को नासिक में छात्रावास की नींव रखी। साहू महाराज के प्रयासों का परिणाम उनके शासन में ही दिखने लग गया था। साहू जी महाराज ने जब देखा कि, अछूत-पिछड़ी जाति के छात्रों की राज्य के स्कूल-कॉलेजों में पर्याप्त संख्या हैं, तब उन्होंने वंचितों के लिए खुलवाये गए पृथक स्कूल और छात्रावासों को बंद करवा दिया और उन्हें सामान्य छात्रों के साथ ही पढ़ने की सुविधा प्रदान की। डॉ० भीमराव अम्बेडकर बड़ौदा नरेश की छात्रवृति पर पढ़ने के लिए विदेश गए लेकिन छात्रवृत्ति बीच में ही रोक दिए जाने के कारण उन्हे वापस भारत आना पड़ा। इसकी जानकारी जब साहू जी महाराज को हुई तो महाराज ने आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए उन्हें सहयोग दिया।

१९०१ में लार्ड कर्ज़न ने शिमला में एक गुप्त शिक्षा सम्मेलन किया था जिसें १५२ प्रस्ताव स्वीकृत हुए थे। इसमें कोई भारतीय नहीं बुलाया गया था और न सम्मेलन के निर्णयों का प्रकाशन ही हुआ। इसको भारतीयों ने अपने विरुद्ध रचा हुआ षड्यंत्र समझा। कर्ज़न को भारतीयों का सहयोग न मिल सका। प्राथमिक शिक्षा की उन्नति के लिए कर्ज़न ने उचित रकम की स्वीकृति दी, शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की तथा शिक्षा अनुदान पद्धति और पाठ्यक्रम में सुधार किया। कर्ज़न का मत था कि, प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही दी जानी चाहिए। माध्यमिक स्कूलों पर सरकारी शिक्षाविभाग और विश्वविद्यालय दोनों का नियंत्रण आवश्यक मान लिया गया। आर्थिक सहायता बढ़ा दी गई। पाठ्यक्रम में सुधार किया गया। कर्जन माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में सरकार का हटना उचित नहीं समझता था, प्रत्युत सरकारी प्रभाव का बढ़ाना आवश्यक मानता था। इसलिए वह सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ाना चाहता था। लार्ड कर्जन ने विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा की उन्नति के लिए १९०२ में भारतीय विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त किया। पाठ्यक्रम, परीक्षा, शिक्षण, कालेजों की शिक्षा, विश्वविद्यालयों का पुनर्गठन इत्यादि विषयों पर विचार करते हुए आयोग ने सुझाव उपस्थित किए। इस आयोग में भी कोई भारतीय न था। इसपर भारतीयों में क्षोभ बढ़ा। उन्होंने विरोध किया। १९०४ में भारतीय विश्वविद्यालय कानून बना। पुरातत्व विभाग की स्थापना से प्राचीन भारत के इतिहास की सामग्रियों का संरक्षण होने लगा। १९०५ के स्वदेशी आंदोलन के समय कलकत्ते में जातीय शिक्षा परिषद् की स्थापना हुई और नैशनल कॉलेज स्थापित हुआ जिसके प्रथम प्राचार्य अरविंद घोष थे। बंगाल टेकनिकल इन्स्टिट्यूट की स्थापना भी हुई।

१९११ में गोपाल कृष्ण गोखले ने प्राथमिक शिक्षा को नि:शुल्क और अनिवार्य करने का प्रयास किया। अंग्रेज़ सरकार और उसके समर्थकों के विरोध के कारण वे सफल न हो सके। १९१३ में भारत सरकार ने शिक्षानीति में अनेक परिवर्तनों की कल्पना कि, परंतु प्रथम विश्वयुद्ध के कारण कुछ हो न पाया। प्रथम महायुद्ध के समाप्त होने पर कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त हुआ। आयोग ने शिक्षकों का प्रशिक्षण, इंटरमीडिएट कॉलेजों की स्थापना, हाई स्कूल और इंटरमीडिएट बोर्डों का संगठन, शिक्षा का माध्यम, ढाका में विश्वविद्यालय की स्थापना, कलकत्ते में कालेजों की व्यवस्था, वैतनिक उपकुलपति, परीक्षा, मुस्लिम शिक्षा, स्त्रीशिक्षा, व्यावसायिक और औद्योगिक शिक्षा आदि विषयों पर सिफारिशें कि, बंबई, बंगाल, बिहार, आसाम आदि प्रांतों में प्राथमिक शिक्षा कानून बनाये जाने लगे। माध्यमिक क्षेत्र में भी उन्नति होती गई। छात्रों की संख्या बढ़ी। माध्यमिक पाठ्य में वाणिज्य और व्यवसाय रखे दिए गए। स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट परीक्षा चली। अंग्रेजी का महत्व बढ़ता गया। अधिक संख्या में शिक्षकों का प्रशिक्षण होने लगा।

१९१६ तक भारत में पाँच विश्वविद्यालय थे। अब सात नए विश्वविद्यालय स्थापित किए गए। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय तथा मैसूर विश्वविद्यालय १९१६ में, पटना विश्वविद्यालय १९१७ में, ओसमानिया विश्वविद्यालय १९१८ में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय १९२० में और लखनऊ और ढाका विश्वविद्यालय १९२१ में स्थापित हुए। असहयोग आंदोलन से राष्ट्रीय शिक्षा की प्रगति में बल और वेग आए। बिहार विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, गौड़ीय सर्वविद्यायतन, तिलक विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, जामिया मिल्लिया इस्लामिया आदि राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना हुई। शिक्षा में व्यावहारिकता लाने की चेष्टा की गई। १९२१ से नए शासनसुधार कानून के अनुसार सभी प्रांतों में शिक्षा भारतीय मंत्रियों के अधिकार में आ गई, परंतु सरकारी सहयोग के अभाव के कारण उपयोगी योजनाओं का कार्यान्वित करना संभव न हुआ। प्राय: सभी प्रांतों में प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य करने की कोशिश व्यर्थ हुई। माध्यमिक शिक्षा में विस्तार होता गया परंतु उचित संगठन के अभाव से उसकी समस्याएँ हल न हो पाईं। शिक्षा समाप्त कर विद्यार्थी कुछ करने के योग्य न बन पाते। दिल्ली (१९२२), नागपुर (१९२३) आगरा (१९२७), आंध्र (१९२६) और अन्नामलाई (१९२६) में विश्वविद्यालय स्थापित हुए। बंबई, पटना, कलकत्ता, पंजाब, मद्रास और इलाहबाद विश्वविद्यालयों का पुनर्गठन हुआ। कालेजों की संख्या में वृद्धि होती गई। व्यावसायिक शिक्षा, स्त्रीशिक्षा, मुसलमानों की शिक्षा, दलितों की शिक्षा, तथा अपराधी जातियों की शिक्षा में उन्नति होती गई।

अगले शासनसुधार के लिए साइमन आयोग की नियुक्ति हुई। हर्टाग समिति इस आयोग का एक आवश्यक अंग थी। इसका काम था भारतीय शिक्षा की समस्याओं की सांगोपांग जाँच करना। समिति ने रिपोर्ट में १९१८ से १९२७ क प्रचलित शिक्षा के गुण और दोष का विवेचन किया और सुधार के लिए निर्देश दिया।

१९३० - १९३५ के बीच संयुक्त प्रदेश में बेकारी की समस्या के समाधान के लिए समिति बनी। व्यावहारिक शिक्षा पर जोर दिया गया। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दो वर्षों में से एक वर्ष स्कूल के साथ कर दिया जाए, जिससे पढ़ाई ११ वर्ष की हो। बाकी एक वर्ष बी.ए. के साथ जोड़कर बी.ए. पाठ्यक्रम तीन वर्ष का कर दिया जाए। माध्यमिक छह वर्ष के दो भाग हों - तीन वर्ष का निम्न माध्यमिक और तीन वर्ष का उच्च माध्यमिक। अंतिम तीन वर्षों में साधारण पढ़ाई के साथ साथ कृषि, शिल्प, व्यवसाय सिखाए जायँ। समिति की ये सिफारिशें कार्यान्वित नहीं हुई।

१९३७ में शिक्षा की एक योजना तैयार की गई जो १९३८ में बुनियादी शिक्षा के नाम से प्रसिद्ध हुई। सात से ११ वर्ष के बालक बालिकाओं की शिक्षा अनिवार्य हो। शिक्षा मातृभाषा में हो। हिंदुस्तानी पढ़ाई जाए। चरखा, करघा, कृषि, लकड़ी का काम शिक्षा का केंद्र हो जिसकी बुनियाद पर साहित्य, भूगोल, इतिहास, गणित की पढ़ाई हो। १९४५ में इसमें परिवर्तन किए गए और परिवर्तित योजना का नाम रखा गया 'नई तालीम'। इसके चार भाग थे - (१) पूर्व बुनियादी, (२) बुनियादी, (३) उच्च बुनियादी और (४) वयस्क शिक्षा। हिंदुस्तानी तालीमी संघ (भारतीय शैक्षिक संघ) पर इसका संचालनभार छोड़ दिया गया।

१९४५ में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होते होते सार्जेट योजना का निर्माण हुआ। छह से १४ वर्ष की अवस्था के बालकों तथा बालिकाओं के लिए अनिवार्य शिक्षा हो। जूनियर बेसिक स्कूल, सीनियर बेसिक स्कूल, साहित्यिक हाई स्कूल ओर व्यावसायिक हाई स्कूल की पढ़ाई ११ वर्ष की अवस्था से १७ वर्ष की अवस्था तक हो। इसके बाद विश्वविद्यालय में प्रवेश हो। डिग्री पाठ्यक्रम तीन वर्ष का हो। इंटरमीडिएट कक्षा समाप्त कर दी जाए। पाँच से कम अवस्थावालों के लिए नर्सरी स्कूल हो। माध्यम मातृभाषा हो।

भारत के लिये अंग्रेजों की शिक्षा नीति

ब्रिटिश काल में शिक्षा में मिशनरियों का प्रवेश हुआ, इस काल में महत्वपूर्ण शिक्षा दस्तावेज में मैकोले का घोषणा पत्र १८३५, वुड का घोषणा पत्र १८५४, हण्टर आयोग १८८२ सम्मिलित हैं। इस काल में शिक्षा का उद्देश्य अंग्रेजों के राज्य के शासन सम्बन्धी हितों को ध्यान में रखकर बनाया गया था।

प्राय: लोग इसे मैकोले की शिक्षा प्रणाली के नाम से पुकारते हैं। लार्ड मैकोले ब्रिटिश पार्लियामेन्ट के ऊपरी सदन (हाउस ऑफ लार्ड्स) का सदस्य था। १८५७ की क्रान्ति के बाद जब १८६० में भारत के शासन को ईस्ट इण्डिया कम्पनी से छीनकर रानी विक्टोरिया के अधीन किया गया तब मैकोले को भारत में अंग्रेजों के शासन को मजबूत बनाने के लिये आवश्यक नीतियां सुझाने का महत्वपूर्ण कार्य सौंपा गया था। उसने सारे देश का भ्रमण किया। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि, यहां झाडू देने वाला, चमड़ा उतारने वाला, करघा चलाने वाला, कृषक, व्यापारी (वैश्य), मंत्र पढ़ने वाला आदि सभी वर्ण के लोग अपने-अपने कर्म को बड़ी श्रद्धा से हंसते-गाते कर रहे थे। सारा समाज संबंधों की डोर से बंधा हुआ था। शूद्र भी समाज में किसी का भाई, चाचा या दादा था तथा ब्राह्मण भी ऐसे ही रिश्तों से बंधा था। बेटी गांव की हुआ करती थी, तथा दामाद, मामा आदि रिश्ते गांव के हुआ करते थे। इस प्रकार भारतीय समाज भिन्नता के बीच भी एकता के सूत्र में बंधा हुआ था। इस समय धार्मिक सम्प्रदायों के बीच भी सौहार्दपूर्ण संबंध था। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि, १८५७ की क्रान्ति में हिन्दू-मुसलमान दोनों ने मिलकर अंग्रेजों का विरोध किया था। मैकाले को लगा कि, जब तक हिन्दू-मुसलमानों के बीच वैमनस्यता नहीं होगी तथा वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत संचालित समाज की एकता नहीं टूटेगी तब तक भारत पर अंग्रेजों का शासन मजबूत नहीं होगा।

भारतीय समाज की एकता को नष्ट करने तथा वर्णाश्रित कर्म के प्रति घृणा उत्पन्न करने के लिए मैकोले ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली को बनाया। अंग्रेजों की इस शिक्षा नीति का लक्ष्य था - संस्कृत, फारसी तथा लोक भाषाओं के वर्चस्व को तोड़कर अंग्रेजी का वर्चस्व कायम करना। साथ ही सरकार चलाने के लिए देशी अंग्रेजों को तैयार करना। इस प्रणाली के जरिए वंशानुगत कर्म के प्रति घृणा पैदा करने और परस्पर विद्वेष फैलाने का भी प्रयास किया गया। इसके अलावा पश्चिमी सभ्यता एवं जीवन पद्धति के प्रति आकर्षण पैदा करना भी मैकोले का लक्ष्य था। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में ईसाई मिशनरियों ने भी महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई। ईसाई मिशनरियों ने ही सर्वप्रथम मैकोले की शिक्षा-नीति को लागू किया।

मार्च १८९० में गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा पहली बार अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी प्रस्ताव किया गया था। हर्टांग समिति १९२९ ने प्राथमिक विद्यालयों की संख्यात्मक वृद्धि पर बल न देकर गुणात्मक उन्नति पर जोर दिया था। गाँधी जी द्वारा प्रतिपादित बुनियादी शिक्षा का महत्वपूर्ण लक्ष्य, शिल्प आधारित शिक्षा द्वारा बालक का सर्वांगीण विकास कर उसे आत्मनिर्भर आदर्श नागरिक बनाना था। मैकोले ने सुझाव दिया कि, अंग्रेजी सीखने से ही विकास संभव है।

महान व्यंग्य रचनाकार श्रीलाल शुक्ल अपनी रचना के माध्यम से भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि ‘वर्तमान शिक्षा व्यवस्था सड़क के किनारे पड़ी वह कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।’ भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर श्रीलाल शुक्ल का यह बयान एक बार फिर पटल पर आ गया जब एप्पल के सह-संस्थापक स्टीव वाॅजनिएक ने अपने एक साक्षात्कार में भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर अपनी बेबाक राय रखी और कहा कि ‘भारत में नौकरी मिलना ही सफलता का मापदंड माना जाता है, जिसमें रचनात्मकता कहीं नहीं झलकता है।’

ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन ने सन १८३५ ई. में भारत के लिये एक विधि आयोग का गठन किया था, जिसका अध्यक्ष बना कर लॅार्ड मैकोले को भारत भेजा गया. इसी वर्ष लार्ड मैकोले ने भारत में नई शिक्षा नीति की नींव रखी. ६ अक्टूबर १८६० को लॅार्ड मैकोले द्वारा लिखी गई भारतीय दण्ड संहिता लागू हुई और  देश की जनता को गुलाम बनाये रखने के लिए एक नये तरह की शिक्षा-व्यवस्था को देश में लागू किया. यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि, भारत की तथाकथित आजादी के ७० साल बाद भी लार्ड मैकोले की शिक्षा नीति ही देश में वगैर आमूल-चूल बदलाव के लागू है, जिसका परिणाम आज देश में इस रूप में दिखता है। एप्पल के सह-संस्थापक स्टीब की यह टिप्पणी भारत की इसी लार्ड-मैकोले वाली शिक्षा पद्धति पर आधारित शिक्षा व्यवस्था पर है।

महात्मा गांधी और भारतीय शिक्षा

गाँधीजी भारतीय शिक्षा को 'द ब्यूटीफुल ट्री' (The beautiful tree) कहा करते थे। इसके पीछे कारण यह था कि, गाँधी ने भारत की शिक्षा के बारे में जो कुछ पढ़ा था, उससे पाया था कि, भारत में शिक्षा सरकारों के बजाय समाज के अधीन थी।

स्व. डॉ॰ धर्मपाल प्रसिद्ध गाँधीवादी चिन्तक रहे हैं। उन्होंने भारतीय ज्ञान, विज्ञान, समाज, राजनीति और शिक्षा को लेकर बहुत ही महत्वपूर्ण शोध किया है। गाँधी के वाक्य 'द ब्यूटीफुल ट्री' को जैस का तैस लेकर डॉ॰ धर्मपाल ने अपना शोध शुरू किया और अँगरेजों और उससे पूर्व के समस्त दस्तावेज खंगाले। जो कुछ भारत में मिला उन्हें संग्रहालयों और ग्रंथालयों से लिया और जो जानकारी भारत से बाहर ईस्ट इंडिया कंपनी और यहाँ तक कि, सर टामस रो से लेकर अँगरेजों के भारत छोड़ने तक की, इंग्लैंड में उपलब्ध थी, उसे वहाँ जाकर खोजा। धर्मपालजी ने अँगरेजकालीन घटनाओं का जो ऐतिहासिक अन्वेषण कर यह साबित किया कि, जिस प्रकार उन लोगों ने न केवल हमारे अर्थशास्त्र और कुटीर उद्योग को समाप्त कर हमारे पूरे अर्थतंत्र को डस लिया, बल्कि भारत का सांस्कृतिक, साहित्यिक, नैतिक और आध्यात्मिक विखंडन भी किया जिससे भारत अपना भारतपन ही भूल गया और अँगरेजी शिक्षा से आच्छन्न यहाँ के कुछ बड़े घरानों के लोग भारत भाग्य विधाता बन गए।

कुछ प्रसिद्ध भारतीय प्राचीन ऋषि मुनि एवं संशोधक

👉🏻 प्राचीन शिक्षा पद्धति की देन भी कह सकते हैं।



पुरातन ग्रंथों के अनुसार, प्राचीन ऋषि-मुनि एवं दार्शनिक हमारे आदि वैज्ञानिक थे, जिन्होंने अनेक आविष्कार किए और विज्ञान को भी ऊंचाइयों पर पहुंचाया।



#अश्विनीकुमार: मान्यता है कि ये देवताओं के चिकित्सक थे। कहा जाता है कि, इन्होंने उड़ने वाले रथ एवं नौकाओं का आविष्कार किया था।


#धन्वंतरि: इन्हें आयुर्वेद का प्रथम आचार्य व प्रवर्तक माना जाता है। इनके ग्रंथ का नाम धन्वंतरि संहिता है। शल्य चिकित्सा शास्त्र के आदि प्रवर्तक सुश्रुत और नागार्जुन इन्हीं की परंपरा में हुए थे।


#महर्षि_भारद्वाज: आधुनिक विज्ञान के मुताबिक राइट बंधुओं ने वायुयान का आविष्कार किया। वहीं हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार कई सालों पहले ही ऋषि भारद्वाज ने विमानशास्त्र के माध्यम से वायुयान को गायब करने के असाधारण विचार से लेकर, एक ग्रह से दूसरे ग्रह व एक दुनिया से दूसरी दुनिया में ले जाने के रहस्य उजागर किए। इस तरह ऋषि भारद्वाज को वायुयान का आविष्कारक भी माना जाता है।


#महर्षि_विश्वामित्र: ऋषि बनने से पहले विश्वामित्र क्षत्रिय थे। ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को पाने के लिए हुए युद्ध में मिली हार के बाद तपस्वी हो गए। विश्वामित्र ने भगवान शिव से अस्त्र विद्या पाई। इसी कड़ी में माना जाता है कि, आज के युग में प्रचलित प्रक्षेपास्त्र या मिसाइल प्रणाली हजारों साल पहले विश्वामित्र ने ही खोजी थी। 

ऋषि विश्वामित्र ही ब्रह्म गायत्री मंत्र के दृष्टा माने जाते हैं। विश्वामित्र का अप्सरा मेनका पर मोहित होकर तपस्या भंग होना भी प्रसिद्ध है। शरीर सहित त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने का चमत्कार भी विश्वामित्र ने तपोबल से कर दिखाया।


#महर्षि_गर्गमुनि: गर्ग मुनि नक्षत्रों के खोजकर्ता माने जाते हैं। यानी सितारों की दुनिया के जानकार।ये गर्गमुनि ही थे, जिन्होंने श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के बारे में नक्षत्र विज्ञान के आधार पर जो कुछ भी बताया, वह पूरी तरह सही साबित हुआ।  कौरव-पांडवों के बीच महाभारत युद्ध विनाशक रहा। इसके पीछे वजह यह थी कि युद्ध के पहले पक्ष में तिथि क्षय होने के तेरहवें दिन अमावस थी। इसके दूसरे पक्ष में भी तिथि क्षय थी। पूर्णिमा चौदहवें दिन आ गई और उसी दिन चंद्रग्रहण था। तिथि-नक्षत्रों की यही स्थिति व नतीजे गर्ग मुनिजी ने पहले बता दिए थे।



#महर्षि_पतंजलि: आधुनिक दौर में जानलेवा बीमारियों में एक कैंसर या कर्करोग का आज उपचार संभव है। किंतु कई सदियों पहले ही ऋषि पतंजलि ने कैंसर को भी रोकने वाला #योगशास्त्र रचकर बताया कि योग से कैंसर का भी उपचार संभव है।



#महर्षिकपिलमुनि: सांख्य दर्शन के प्रवर्तक व सूत्रों के रचयिता थे महर्षि कपिल, जिन्होंने चेतना की शक्ति एवं त्रिगुणात्मक प्रकृति के विषय में महत्वपूर्ण सूत्र दिए थे।



#महर्षि_कणाद: ये वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक हैं। ये अणु विज्ञान के प्रणेता रहे हैं। इनके समय अणु विज्ञान दर्शन का विषय था, जो बाद में भौतिक विज्ञान में आया।



                                           

#महर्षि_सुश्रुत: ये शल्य चिकित्सा पद्धति के प्रख्यात आयुर्वेदाचार्य थे। इन्होंने सुश्रुत संहिता नामक ग्रंथ में शल्य क्रिया का वर्णन किया है। सुश्रुत ने ही त्वचारोपण (प्लास्टिक सर्जरी) और मोतियाबिंद की शल्य क्रिया का विकास किया था। पार्क डेविस ने सुश्रुत को विश्व का प्रथम शल्यचिकित्सक कहा है।

#जीवक: सम्राट बिंबसार के एकमात्र वैद्य। उज्जयिनी सम्राट चंडप्रद्योत की शल्य चिकित्सा इन्होंने ही की थी। कुछ लोग मानते हैं कि गौतम बुद्ध की चिकित्सा भी इन्होंने की थी।



#महर्षि_बौधायन: बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुल्वसुत्र के रचयिता थे। आज दुनिया भर में यूनानी उकेलेडियन ज्योमेट्री पढाई जाती है मगर इस ज्योमेट्री से पहले भारत के कई गणितज्ञ ज्योमेट्री के नियमों की खोज कर चुके थे। उन गणितज्ञ में बौधायन का नाम सबसे ऊपर है, उस समय ज्योमेट्री या एलजेब्रा को भारत में शुल्वशास्त्र कहा जाता था।


#महर्षि_भास्कराचार्य: आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्यजी ने उजागर किया। भास्कराचार्यजी ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस वजह से आसमानी पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है’।

#महर्षि_चरक: चरक औषधि के प्राचीन भारतीय विज्ञान के पिता के रूप में माने जातें हैं। वे कनिष्क के दरबार में राज वैद्य (शाही चिकित्सक) थे, उनकी चरक संहिता चिकित्सा पर एक उल्लेखनीय पुस्तक है। इसमें रोगों की एक बड़ी संख्या का विवरण दिया गया है और उनके कारणों की पहचान करने के तरीकों और उनके उपचार की पद्धति भी प्रदान करती है। वे स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण पाचन, चयापचय और प्रतिरक्षा के बारे में बताते थे और इसलिए चिकित्सा विज्ञान चरक संहिता में, बीमारी का इलाज करने के बजाय रोग के कारण को हटाने के लिए अधिक ध्यान रखा गया है। चरक आनुवांशिकी (अपंगता) के मूल सिद्धांतों को भी जानते थे।



#ब्रह्मगुप्त: ७ वीं शताब्दी में, ब्रह्मगुप्त ने गणित को दूसरों से परे ऊंचाइयों तक ले गये। गुणन के अपने तरीकों में, उन्होंने लगभग उसी तरह स्थान मूल्य का उपयोग किया था, जैसा कि आज भी प्रयोग किया जाता है। उन्होंने गणित में शून्य पर नकारात्मक संख्याएं और संचालन शुरू किया। उन्होंने ब्रह्म मुक्त सिध्दांतिका को लिखा, जिसके माध्यम से अरब देश के लोगों ने हमारे गणितीय प्रणाली को जाना।

#महर्षि_अग्निवेश: ये शरीर विज्ञान के रचयिता थे।

#महर्षि_शालिहोत्र: इन्होंने पशु चिकित्सा पर आयुर्वेद ग्रंथ की रचना की।

#व्याडि: ये रसायनशास्त्री थे। इन्होंने भैषज (औषधि) रसायन का प्रणयन किया। अलबरूनी के अनुसार, व्याडि ने एक ऐसा लेप बनाया था, जिसे शरीर पर मलकर वायु में उड़ा जा सकता था।


#आर्यभट्ट: इनका जन्म ४७६ ई. में कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) पटना में हुआ था। ये महान खगोलशास्त्र और व गणितज्ञ थे। इन्होने ही सबसे पहले सूर्ये और चन्द्र ग्रहण की वियाख्या की थी। और सबसे पहले इन्होने ही बताया था की धरती अपनी ही धुरी पर धूमती है | और इसे सिद्ध भी किया था। और यही नही इन्होने हे सबसे पहले पाई के मान को निरुपित किया।


#महर्षि_वराहमिहिर: इनका जन्म ४९९ ई . में कपित्थ (उज्जेन) में हुआ था। ये महान गणितज्ञ और खगोलशास्त्र थे। इन्होने पंचसिद्धान्तका नाम की किताब लिखी थी जिसमे इन्होने बताया था की , अयनांश , का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर होता होता है। और इन्होने शून्य और ऋणात्मक संख्याओ के बीजगणितीय गुणों को परिभाषित किया।

#हलायुध: इनका जन्म १००० ई . में काशी में हुआ था| ये ज्योतिषविद , और गणितज्ञ व महान वैज्ञानिक भी थे। इन्होने अभिधानरत्नमाला या मृतसंजीवनी नमक ग्रन्थ की रचना की। इसमें इन्होने या की पास्कल त्रिभुज (मेरु प्रस्तार) का स्पष्ट वर्णन किया है। पुरातन ग्रंथों के अनुसार, प्राचीन ऋषि-मुनि एवं दार्शनिक हमारे आदि वैज्ञानिक थे, जिन्होंने अनेक आविष्कार किए और विज्ञान को भी ऊंचाइयों पर पहुंचाया।

५००० साल पहले #ब्राह्मणोंने हमारा बहुत शोषण किया ब्राह्मणों ने हमें पढ़ने से रोका
यह बात बताने वाले महान इतिहासकार यह नहीं बताते कि ५०० साल पहले मुगलों ने हमारे साथ क्या किया १०० साल पहले अंग्रेजो ने हमारे साथ क्या किया?


हमारे देश में शिक्षा नहीं थी तो कैसे १८९७ में #शिवकर बापूजी तलपडेने हवाई_जहाज बनाकर उड़ाया था मुंबई में जिसको देखने के लिए उस टाइम के हाई कोर्ट के जज महा गोविंद रानाडे और मुंबई के एक राजा महाराज गायकवाड के साथ-साथ हजारों लोग मौजूद थे जहाज देखने के लिए।



उसके बाद एक #डेली ब्रदर नाम की इंग्लैंड की कंपनी ने #शिवकर बापूजी तलपडे के साथ समझौता किया और बाद में बापू जी की मृत्यु हो गई यह मृत्यु भी एक षड्यंत्र है हत्या कर दी गई और फिर बाद में १९०३ में राइट बंधु ने जहाज बनाया।

आप लोगों को बताते चलें कि, आज से हजारों साल पहले की किताब है #महर्षि भारद्वाज की विमानशास्त्र जिसमें ५०० जहाज ५०० प्रकार से बनाने की विधि है उसी को पढ़कर शिवकर बापूजी तलपडे ने जहाज बनाई थी।

लेकिन यह तथाकथित #नास्तिकलंपटईसाइयों के दलाल जो है तो हम सबके ही बीच से लेकिन हमें बताते हैं कि भारत में तो कोई शिक्षा ही नहीं था कोई रोजगार नहीं था।

#अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जॉर्जवाशिंगटन १४ दिसंबर १७९९ को मरे थे सर्दी और बुखार की वजह से उनके पास बुखार की दवा  नहीं थी उस टाइम #भारत में प्लास्टिक सर्जरी होती थी और अंग्रेज प्लास्टिक सर्जरी सीख रहे थे हमारे गुरुकुल में अब कुछ वामपंथी लंपट बोलेंगे यह सरासर झूठ है।

तो वामपंथी लंपट गिरोह कर सकते है।

#ऑस्ट्रेलियनकॉलेजऑफसर्जनमेलबर्न में #ऋषिसुश्रुतऋषि की  प्रतिमा "फादर ऑफ सर्जरी" टाइटल के साथ स्थापित है।

१५ साल साल पहले का २००० साल पहले का मंदिर मिलते हैं जिसको आज के #वैज्ञानिकऔर इंजीनियर देखकर हैरान में हो जाते हैं कि मंदिर बना कैसे होगा अब #हमेंइनवामपंथी_लंपट लोगो  से हमें पूछना चाहिए कि, मंदिर बनाया किसने 

#ब्राह्मणोंनेहमें पढ़ने नहीं दिया यह बात बताने वाले महान इतिहासकार हमें यह नहीं बताते कि सन १८३५ तक भारत में ७,००,००० गुरुकुल थे इसका पूरा डॉक्यूमेंट Indian house में मिलेगा ।

भारत गरीब देश था चाहे है तो फिर दुनिया के तमाम आक्रमणकारी भारत ही क्यों आए हमें अमीर बनाने के लिए।

भारत में कोई रोजगार नहीं था।

भारत में पिछड़े दलितों को गुलाम बनाकर रखा जाता था लेकिन वामपंथी लंपट आपसे यह नहीं बताएंगे कि, हम १७५० में पूरे दुनिया के व्यापार में भारत का हिस्सा २४% था।

और सन १९०० में १% पर आ गया आखिर कारण क्या था?

अगर हमारे देश में उतना ही छुआछूत थे हमारे देश में रोजगार नहीं था तो फिर पूरे दुनिया के व्यापार में हमारा २४% का व्यापार कैसे था?

यह वामपंथी लंपट यह नहीं बताएंगे कि कैसे अंग्रेजों के नीतियों के कारण भारत में लोग एक ही साथ ३०,००,००० लोग भूख से मर गए कुछ दिन के अंतराल में ।

एक बहुत खास बात वामपंथी लंपट  या अंग्रेज दलाल कहते हैं, इतना ही भारत समप्रीत था इतना ही सनातन संस्कृति समृद्ध थी तो सभी अविष्कार अंग्रेजों ने ही क्यों किए हैं भारत के लोगों ने कोई भी अविष्कार क्यों नहीं किया?

उन वामपंथी लंपट लोगों को बताते चलें कि किया तो सब आविष्कार भारत में ही लेकिन उन लोगों ने चुरा करके अपने नाम से पेटेंट कराया नहीं तो एक बात बताओ भारत आने से पहले अंग्रेजों ने कोई एक अविष्कार किया हो तो उसका नाम बताओ एवर थोड़ा अपना दिमाग लगाओ कि, भारत आने के बाद ही यह लोग आविष्कार कैसे करने लगे, उससे पहले क्यों नहीं करते थे?

।। शिक्षा 📚 पद्धति का विशेष भाग समाप्त।।

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