सियार 🦊 और ढोल 🥁
एक बार एक जंगल 🌳के निकट दो 🤴🏼⚔️🤴🏼राजाओं के बीच घोर युद्ध हुआ। एक जीता दूसरा हारा। सेनाएं अपने नगरों को लौट गईं। बस, सेना का एक ढोल🥁 पीछे रह गया। उस ढोल को बजा-बजाकर सेना के साथ गए भाट व चारण रात को वीरता की कहानियां सुनाते थे।
युद्ध के बाद एक दिन आंधी आई। आंधी के जोर में वह ढोल लुढ़कता-पुढ़कता एक सूखे पेड़ के पास जाकर टिक गया। उस पेड़ की सूखी टहनियां ढोल से इस तरह से सट गई थीं कि, तेज हवा चलते ही ढोल पर टकरा जाती थीं और ढमाढम 🎶-ढमाढम 🎶 की गुंजायमान आवाज होती।
एक सियार 🦊 उस क्षेत्र में घूमता था। उसने ढोल की आवाज 🎶 सुनी। वह बड़ा भयभीत हुआ। ऐसी विचित्र आवाज बोलते पहले उसने किसी प्राणी को नहीं सुना था। वह सोचने लगा कि, 'यह कैसा 🤔 प्राणी है, जो ऐसी जोरदार बोली बोलता है 'ढमऽढमाढम'।' सियार छिपकर ढोल को देखता रहता, यह जानने के लिए कि, यह जीव उड़ने वाला है या चार टांगों पर दौड़ने वाला।
एक दिन सियार 🦊 झाड़ी के पीछे छुपकर ढोल पर नजर रखे था। तभी पेड़ से नीचे उतरती हुई एक गिलहरी 🐿️ कूदकर ढोल पर उतरी। हलकी-सी ढम की आवाज भी हुई। गिलहरी🐿 ढोल पर बैठी दाना कुतरती रही।
भये वा यदि वा हर्षे संप्राप्ते यो विमर्शयेत्।
कृत्यं न कुरुते वेगान्न स संतापमाप्नुयात्।।
भय वा हर्ष के प्राप्त होनेपर जो विचार करता है और कार्य को शीर्घतासे नहीं करता है, वह संताप को प्राप्त नहीं होता है।
सियार 🦊 बड़बड़ाया, 'ओह! तो यह कोई हिंसक जीव नहीं है। मुझे भी डरना नहीं चाहिए।'
सियार 🦊 फूंक-फूंककर कदम रखता ढोल के निकट गया। उसे सूंघा। ढोल का उसे न कहीं सिर नजर आया और न पैर। तभी हवा के झोंके से टहनियां ढोल से टकराईं। ढम की आवाज 🎶🎶 हुई और सियार 🦊 उछलकर पीछे जा गिरा।
'अब समझ आया', सियार 🦊 उठने का प्रयास करता हुआ बोला, 'यह तो बाहर का खोल है। जीव इस खोल के अंदर है। आवाज बता रही है कि, जो कोई जीव इस खोल के भीतर रहता है, वह मोटा-ताजा होना चाहिए। चर्बी से भरा शरीर। तभी ये ढम-ढम की जोरदार बोली बोलता है।'
अपनी मांद में घुसते ही सियार 🦊 बोला, 'ओ सियारी! 🐺! अच्छा खाना खाने के लिए तैयार हो जा। एक मोटे-ताजे शिकार का पता लगाकर आया हूं।'
सियारी 🐺 पूछने लगी, 'तुम उसे मारकर क्यों नहीं लाए?'
सियार 🦊 ने उसे झिड़की दी, 'क्योंकि मैं तेरी तरह मूर्ख नहीं हूं। वह एक खोल के भीतर छिपा बैठा है। खोल ऐसा है कि, उसमें दो तरफ सूखी चमड़ी के दरवाजे हैं। मैं एक तरफ से हाथ डाल उसे पकड़ने की कोशिश करता तो वह दूसरे दरवाजे से न भाग जाता?'
चांद 🌝 निकलने पर दोनों ढोल की ओर गए। जब वे निकट पहुंच ही रहे थे कि, फिर हवा से टहनियां ढोल पर टकराईं और ढम-ढम की आवाज निकली। सियार 🦊 सियारी 🐺 के कान में बोला, 'सुनी उसकी आवाज? जरा सोच जिसकी आवाज ऐसी है, वह खुद कितना मोटा ताजा होगा।'
दोनों ढोल को सीधा कर उसके दोनों ओर बैठे और लगे दांतों से ढोल के दोनों चमड़ी वाले भाग के किनारे फाड़ने। जैसे ही चमड़ियां कटने लगी, सियार 🦊 बोला, 'होशियार रहना। एक साथ हाथ अंदर डाल शिकार को दबोचना है।'
दोनों ने 'हूं' की आवाज के साथ हाथ ढोल के भीतर डाले और अंदर टटोलने लगे। अंदर कुछ नहीं था। एक-दूसरे के हाथ ही पकड़ में आए।
दोनों चिल्लाए, 'हैं ! यहां तो कुछ नहीं है।' और वे माथा पीटकर रह गए।
पुर्वमेव मया ज्ञातम् इति। ततो न शब्दमात्रात् भेतव्यम्।।
मैने पहले जाना था, कि, शब्दमात्र से न डरना चाहिए।
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यह कहानी सुनने के बाद 🦁 पिंगलक ने कहा, “भाई, मैं क्या करूँ? जब मेरा पूरा परिवार और सभी साथी भयभीत होकर भागने पर तुले हैं तो अकेला मैं ही कैसे धैर्य से रह सकता हूँ?''
🐺दमनक ने कहा, “इसमें आपके सेवकों का क्या दोष है! जैसा मालिक करेगा वैसा ही सेवक करेंगे। तो भी आप तब तक यहाँ ठहरिए जब तक मैं उस आवाज के विषय में ठीक-ठीक पता न लगा लूँ।''
🦁 पिंगलक ने आश्चर्य से पूछा, “क्या तुम वास्तव में वहाँ जाने की सोच रहे हो?"
🐺दमनक ने जवाब दिया, “स्वामी की आज्ञा से तो योग्य सेवक कोई भी काम कर सकता है, चाहे उसे साँप के मुँह में हाथ डालना पड़े या समुद्र ही पार करना पड़े। राजाओं को चाहिए कि, ऐसे ही सेवक को सदा अपने निकट रखें।"
🦁पिंगलक ने कहा, ''अगर ऐसी बात है तो जाओ, भद्र!, तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो।''
🐺दमनक उसको प्रणाम करके आवाज की दिशा में चल पड़ा।
🦁पिंगलक को व्याकुल हो विचार करने लगा कि, 'मैंने बेकार ही 🐺 दमनक की बातों में आकर उसे अपने मन का भेद बता दिया। उसका क्या विश्वास! पहले मंत्री का पद छिन जाने के कारण वह खिन्न तो है ही, बदला लेने के लिए यह भी तो हो सकता है कि, 🐺 दमनक लालच में आकर शत्रु से मिल जाए और बाद में घात लगाकर मुझको ही मरवा दे। जाने दो, अब तो एक ही रास्ता है कि, कहीं दूसरी जगह छिपकर 🐺दमनक के आने की प्रतिक्षा देखी जाए।
न बध्यन्ते ह्यविश्वस्ता बलिभिर्दुर्बला अपि।
विश्वस्तास्त्वेव बध्यंते बलवन्तोपि दुर्बलैः।।
किसी का विश्वास न करने वाले दुर्बल भी बलवान से नहीं बंधते है और विश्वास करने से बलवान ही दुर्बलों से बंधते है।
बृहस्पतेरपि प्राज्ञो न विश्वासे व्रजेत्ररः।
य इच्छेदात्मनो वृद्धिमायुष्यश्च सुखानि च।।
बुद्धिमान तो बृहस्पति के विश्वास में भी न जाय, जो अपनी आयुवृद्धि और सुख की इच्छा करता हो।
उधर 🐺 दमनक खोजते-खोजते 🐂 संजीवक के पास पहुँचा तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। जिसके डर से सिंह 🦁 की जान निकल रही थी, वह तो यह मामूली-सा बैल 🐂 है। 🐺 दमनक इस स्थिति से लाभ उठाने की सोचने लगा -- 'अब तो इस बैल 🐂 से संधि या विग्रह, कुछ भी करके 🦁 पिंगलक को सहज ही अपने वश में किया जा सकता है। यही सोचता-सोचता वह लौटकर 🦁 पिंगलक के पास पहुँचा।'
शपथैः सन्धितस्यापि न विश्वासे व्रजेद्रिपो।
राज्यलाभोद्यतो वृत्रः शत्रेण शपथैर्हतः।।
शपथ से संधान किये शत्रु के विश्वास में न जाय, देखो विश्वास से ही राज्य लोभ से उद्यत हुए वृत्रासुर को इंद्रने मार डाला।
🦁पिंगलक उसे आते देख सँभलकर बैठ गया। 🐺दमनक ने 🦁पिंगलक को प्रणाम🙏🏻 किया।
🦁पिंगलक ने पूछा, “तुमने उस भयंकर प्राणी को देखा क्या? ''
🐺दमनक ने कहा, '' आपकी कृपा से मैं उसे देख आया हूँ।''
🦁पिंगलक को आश्चर्य हुआ- 'सच?'
🐺दमनक बोला, "क्या स्वामी के चरणों के सम्मुख असत्य कहा जाता है? जो देवता और राजाओं के आगे थोड़ा भी असत्य कहता है, वह महान भी शीघ्र नष्ट हो जाता है। मनु जी ने कहा है कि, राजा में सब देवता निवास करते हैं, इस कारण उसको सदा देवताओं के समान देखना, कभी और प्रकार से नहीं। सर्वदेव में होने वाले राजा में यह विशेष है कि, राजा से शुभाशुभ फल शीघ्र मिलता है और देवताओं से जन्म जन्मांतर में फल मिलता हैं।"
🦁पिंगलक ने अपनी झेंप मिटाने के लिए कहा, “तो फिर उस बलवान जंतु ने तुम्हें छोड़ कैसे दिया? शायद उसने इसीलिए तुमको छोड़ दिया होगा कि, बलशाली लोग अपने समान बलवाले से ही बैर या मित्रता करते हैं। कहाँ वह महाबली और कहाँ तुम जैसा तुच्छ, विनम्र प्राणी!”
🐺दमनक ने मन का क्षोभ छिपाकर कहा, “ऐसा ही सही। वह सचमुच महान् है। बलशाली है और मैं एकदम क्षुद्र, दीन प्राणी हूँ। तो भी यदि आप कहें तो मैं उसे भी लाकर आपकी सेवा में लगा सकता हूँ।"
🦁पिंगलक ने चकित होकर कहा, “सच कहते हो? ऐसा संभव है?''
🐺दमनक बोला, “बुद्धि के लिए कुछ भी असंभव नहीं।''
न तच्छस्त्रैर्न नागेन्द्रैर्न हयैर्न पदातिमिः।
कार्य्य संसिद्धिमभ्येति यथा बुद्ध्या प्रसाधित्तम्।।
कार्य जैसा बुद्धि से सिध्द होता है, ऐसा शस्त्र, हाथी, घोडे, पैदलों से सिध्द नहीं होता।
तब 🦁पिंगलक ने कहा, “अगर ऐसी बात है, तो मैं आज से ही तुमको अपना मंत्री नियुक्त करता हूँ। तुम्हें प्रजा पर दया और दंड के अधिकार देता हूँ।''
सदैवापद्गतो राजा भोग्यो भवती मंत्रिणाम्।
अत एव हि वान्छंति मंत्रिणः सापदं नृपम्।।
आपत्ति में प्राप्त हुआ राजा मंत्रियों को सदा भोग्य होता है, इस कारण मंत्री राजा को आपत्ति युक्त रहने की ही इच्छा करते है।
यथा नेच्छति नीरोगः कदाचित्सु चिकीत्सकम्।
तथापद्रहितो राजा सचिवं नाभिवांछति।।
जैसे निरोगी कभी वैद्यकी इच्छा नहीं करता, इसी प्रकार आपत्तिरहित राजा कभी मंत्री की इच्छा नहीं करता।
पद और अधिकार पाकर प्रसन्न 🐺दमनक बड़ी शान से चलता हुआ 🐂संजीवक के पास पहुँचा और गुर्राकर बोला, “ओरे दुष्ट बैल, इधर आ। मेरे स्वामी 🦁पिंगलक तुझे बुला रहे हैं। इस प्रकार निश्शंक होकर डकराने- गरजने की तुझे हिम्मत कैसे हुई?”
🐂संजीवक ने पूछा, “यह 🦁पिंगलक कौन है, भाई?''
🐺दमनक ने जवाब दिया, ''अरे! तू क्या वनराज सिंह 🦁पिंगलक को नहीं जानता? अभी तुझे पता चल जाएगा। वह देख, बरगद🌳 के पेड़ के नीचे अपने परिवार के साथ जो सिंह बैठा है, वही हमारे स्वामी 🦁पिंगलक हैं।''
यह सुनकर 🐂 संजीवक की कंपकंपी छूट गई। वह कातर स्वर में बोला, ''भाई, तुम तो चतुर सुजान लगते हो। अपने स्वामी से मुझे माफ करवा दो तो मैं अभी तुम्हारे साथ चला चलता हूँ।"
🐺दमनक ने कहा, “बात तो ठीक है, तुम्हारी! अच्छा, ठहरो। मैं अभी स्वामी से पूछकर आता हूँ।"
वह 🦁 पिंगलक के पास जाकर बोला, “स्वामी, वह कोई मामूली जंतु नहीं है। वह तो भगवान् 🕉️🔱शंकर का वाहन 🐂 वृषभ है। मेरे पूछने पर उसने बताया कि भगवान् शंकर के आदेश से वह नित्य यहाँ आकर यमुना-तट पर हरी-हरी घास चरता है और इस वन में घूमा करता है।''
🦁पिंगलक भयभीत होकर बोला, ''यह सच ही होगा, क्योंकि भगवान् की कृपा के बिना घास चरनेवाला यह प्राणी 🐍🐍सर्पों से भरे वन में इस तरह से डकराता हुआ, निर्भय विचरण नहीं कर सकता। खैर, यह बता कि अब वह कहता क्या है?''
🐺दमनक बोला, “मैंने उससे कह दिया है कि, यह वन भगवती दुर्गा के वाहन मेरे स्वामी 🦁पिंगलक सिंह के अधिकार में है, इसलिए उनके पास चलकर भाईचारे के साथ रहते हुए इस वन में सुख से चरो। मेरी बात सुनकर उसने आपसे मित्रता की याचना की है।''
🦁 पिंगलक बहुत खुश हुआ। वह प्रशंसा करते हुए बोला, “मंत्रिवर, तुम धन्य हो! मैंने उसको अभयदान दिया; लेकिन तुम मुझे भी उससे अभयदान दिलाकर मेरे पास ले आओ।"
🐺दमनक अपनी बुद्धि और भाग्य पर इतराता हुआ फिर 🐂 संजीवक के पास पहुँचा। बोला, “मित्र! मेरे स्वामी ने तुमको अभयदान दे दिया है। अब तुम निडर होकर मेरे साथ चलो। किंतु याद रहे कि राजा का साथ और कृपा पाने के बाद भी तुम हमसे उचित व्यवहार ही करना। कहीं घमंड में आकर मनमाना आचरण न कर बैठना। मैं समयानुकूल ही शासन करूँगा। मंत्री के पद पर तुम्हारे रहने से हम दोनों को राज्य-लक्ष्मी का सुख मिलेगा। जो व्यक्ति अहंकार के कारण उत्तम, मध्यम और अधम व्यक्तियों का उचित सम्मान नहीं करते, वे राजा का सम्मान पाने के बाद भी दंतिल की तरह दुःख भोगते हैं।''
🐂 संजीवक ने पूछा, “यह दंतिल कौन था? !
🐺दमनक कथा सुनाने लगा -----
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