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Kathamukh | कथामुख |

।।श्री गणेशाय नमः।।

ब्रह्मा रुद्रः कुमारो हरिवरुणयमा वह्रिरिन्द्रः कुबेर श्चंद्रादित्यौ सरस्वत्युदधियुगनगा वायुरुर्वी भुजङ्गा।
सिद्धानद्योऽश्विनौ श्रीर्दितिरदितिसुता मातरश्चण्डिकाद्या वेदास्तीर्थानि यज्ञा गणवसुमुनयः पान्तु नित्यं ग्रहाश्च।।

मया ज्वालाप्रसादेन नमस्कृत्य गजाननम्।
क्रियते पंचतंत्रस्य भाषाटीका मनोरमा।।

 - दोहा - 
शभु शिवा रघुपति सिया, बन्दौ पवनकुमार।
कृपा करहु जन जान मोहि, गुणगार सुखसार।।

ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु, वरुण, यम, अग्नि, इंद्र, कुबेर, चंद्र, सुर्य, सरस्वती, सागर, चारोंयुग, पर्वत, वायु, पृथ्वी, वासुकी आदि सर्प, कपिलादि सिद्ध, नदी, अश्विनीकुमार, लक्ष्मी, दिति, अदिति के पुत्र, चंण्डिकादि मातायें, वेद, तीर्थ, यज्ञ, गण, वसु, मुनि, ग्रह, नित्य रक्षा करे।

मनवे वाचस्पतये शुक्राय पराशराय ससुताय।
चाणक्याय च विदुषे नमोऽस्तु नयशास्त्रकर्तृभ्यः।।

स्वयंभू मनु, बृहस्पति, शुक्र, सुपुत्र पराशर, पण्डित चाणक्य और नीतिशास्त्र बनाने वालोें के निमित्त नमस्कार है।

सकलार्थशास्त्रसारं जगति समालोक्य विष्णु शर्मेदम्।
तन्त्रैः पंचभिरेतश्चकार सुमनोहरं शास्त्रम्।।

इस प्रकार विष्णु शर्मा ने इस जगत् में सम्पूर्ण अर्थशास्त्र का सार देखकर पंचतंत्रो में यह मनोहर शास्त्र निर्माण किया है।

कथा आरंभ

दक्षिण के किसी जनपद में एक नगर था--महिलारोप्य। वहाँ का राजा अमरशक्ति बड़ा ही पराक्रमी तथा उदार था। संपूर्ण कलाओं में पारंगत राजा अमरशक्ति के तीन पुत्र थे--बहुशक्ति, उग्रशक्ति तथा अनंतशक्ति। राजा स्वयं जितना ही नीतिज्ञ, विद्वान्‌, गुणी और कलाओं में पारंगत था, दुर्भाग्य से उसके तीनों पुत्र उतने ही उद्दंड, अज्ञानी और दुर्विनीत थे।

अपने पुत्रों की मूर्खता और अज्ञान से चिंतित राजा ने एक दिन अपने मंत्रियों से कहा, ''ऐसे मूर्ख और अविवेकी पुत्रों से अच्छा तो निस्संतान रहना होता। पुत्रों के मरण से भी इतनी पीड़ा नहीं होती, जितनी मूर्ख पुत्र से होती है। मर जाने पर तो पुत्र एक ही बार दुःख देता है, किंतु ऐसे पुत्र जीवन-भर अभिशाप की तरह पीड़ा तथा अपमान का कारण बनते हैं। हमारे राज्य में तो हजारों विद्वान्, कलाकार एवं नीतिविशारद महापंडित रहते हैं। कोई ऐसा उपाय करो कि ये निकम्मे राजपुत्र शिक्षित होकर विवेक और ज्ञान की ओर बढ़ें।"

अजातमृतमूर्खेभ्यो मृताजातौ सुतौ वरम्।
यतस्तौ स्वल्पदुःखाय यावज्जीवं जडो दहेत्।।

ना हुए, होकर मर गए, और मूर्ख इन पुत्रों में ना हुए और होकर मर गए भले हैं, कारण कि, वे दोनों थोड़े दुख के निमित्त है। मूर्ख तो जन्म पर्यंत दुःख देता है।

वरं गर्भस्त्रावो वरमृतुषु नैवाभिगमनं वरं जातप्रेतो वरमपि च कन्यैव जनिता।
वरं वंध्या भार्या वरमपि च गर्भेषु वसतिर्न चाविद्वान्रूपद्रविणगुणयुक्तोपि तनयः।।

गर्व का स्राव हो जाना अच्छा है, ऋतु में स्त्री के निकट ना जाना अच्छा है, उत्पन्न होते ही मर जाना अच्छा है, वा कन्या ही होनी अच्छी है, भार्या का वंध्य होना भी भला, वा गर्भ में रहना ही भला है, परंतु अपंडित, विगुण, अयुक्त पुत्र अच्छा नहीं है।

वरमिह वा सुतमरणं मा मूर्खत्वं कुलप्रसुतस्य।
येन विबुधजनमध्ये जारज इव लज्जते मनुजः।।

इस जगत में पुत्र का मरण अच्छा है, परंतु कुलोत्पन्न पुत्र का मूर्ख होना भला नहीं, जिससे विद्वानों के बीच में मनुष्य जारोत्पन्न की समान लज्जित होता है।

मंत्री विचार-विमर्श करने लगे। उनमें से एक बोला, "देव!, बारह वर्ष में व्याकरण पढ़ा जाता है, फिर धर्मशास्त्र मनुआदि के, अर्थशास्त्र चाणक्यादि, कामशास्त्र वात्सायनादि, इसके उपरांत फिर धर्म, अर्थ, कामशास्त्र जाने जाते हैं, तब ज्ञान होता है।" अंत में मंत्री सुमति ने कहा, "महाराज!, व्यक्ति का जीवन-काल तो बहुत ही अनिश्चित और छोटा होता है। हमारे राजपुत्र अब बड़े हो चुके हैं। विधिवत्‌ व्याकरण एवं शब्दशास्त्र का अध्ययन आरंभ करेंगे तो बहुत दिन लग जाएँगे। इनके लिए तो यही उचित होगा कि इनको किसी संक्षिप्त शास्त्र के आधार पर शिक्षा दी जाए, जिसमेंं सार-सार ग्रहण करके निस्सार को छोड़ दिया गया हो; जैसे हंस दूध तो ग्रहण कर लेता है, पानी को छोड़ देता है। ऐसे एक महापंडित विष्णु शर्मा आपके राज्य में ही रहते हैं। सभी शास्त्रों में पारंगत विष्णु शर्मा की छात्रों में बड़ी प्रतिष्ठा है। आप तो राजपुत्रों को शिक्षा के लिए उनके हाथों ही सौंप दीजिए।"

राजा अमरशक्ति ने यही किया। उन्होंने महापंडित विष्णु शर्मा का आदर-सत्कार करने के बाद विनय के साथ अनुरोध किया, "आर्य!, आप मेरे पुत्रों पर इतनी कृपा कीजिए कि इन्हें अर्थशास्त्र का ज्ञान हो जाए। मैं आपको दक्षिणा में सौ गाँव प्रदान करूँगा।"

आचार्य विष्णु शर्मा ने निर्भीक स्वर में कहा, "मैं विद्या का विक्रय नहीं करता, देव! मुझे सौ गाँव लेकर अपनी विद्या बेचनी नहीं है, किंतु मैं वचन देता हूँ कि, छह मास में ही आपके पुत्रों को नीतियों में पारंगत कर दूँगा। यदि न कर सकूँ तो ईश्वर मुझे विद्या से शून्य कर दे!"

महापंडित की यह विकट प्रतिज्ञा सुनकर सभी स्तब्ध रह गए।

राजा अमरशक्ति ने मंत्रियों के साथ विष्णु शर्मा की पूजा-अभ्यर्थना की और तीनों राजपुत्रों को उनके हाथ सौंप दिया।

राजपुत्रों को लेकर विष्णु शर्मा अपने आवास पर पहुँचे। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार छह मास में ही उन्हें अर्थनीति में निपुण करने के लिए एक अत्यंत रोचक ग्रंथ की रचना की। उसमें पाँच तंत्र थे -- मित्रभेद, मित्रसंप्राप्ति (मित्रलाभ), काकोलूकीयम्‌, लब्धप्रणाशम्‌ तथा अपरीक्षितकारकम्‌। इसी कारण उस ग्रंथ का नाम 'पंचतंत्र' प्रसिद्ध हो गया।

लोक-गाथाओं से उठाए गए दृष्टांतों से भरपूर इस रोचक ग्रंथ का अध्ययन करके तीनों अशिक्षित और उद्‌दंड राजपुत्र ब्राह्मण की प्रतिज्ञा के अनुसार छह मास में ही नीतिशास्त्र में पारंगत हो गए।

|| यहा पंचतंत्र की मुख्यकथा समाप्त होती है ||

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